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अंबेडकर को कठघरे से आजाद कराना है?

Writer's picture: Jitendra RajaramJitendra Rajaram

किसी घटना, तथ्य या व्यक्तित्व को एक कठघरे में कैद कर देना एक ऐसी राजनैतिक चतुराई है जिसकी काट बहुजन समाज को ढूँढ़नी होगी।



हाल ही में मैंने डॉ भीम राव अंबेडकर द्वारा लिखी "प्रॉब्लेम ऑफ रूपी" पुस्तक पढ़ी। वास्तव में यह पुस्तक उनका शोध पत्र है जिसमें उन्होंने अंग्रेजों की मूर्खता पूर्ण गलतियों की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था को गर्त में धंसा देने का आरोप लगाते हुए ये साबित करते हैं कि कैसे खुद को दुनिया का मालिक समझने वाले अंग्रेज इतने बड़े देश को इतनी मूर्खतापूर्ण तरीके से कंगाल बनाए जा रहे थे। जबकि अगर अंग्रेज समष्टि अर्थशास्त्र में जरा भी विवेकपूर्ण कार्य करते तो न सिर्फ ब्रिटिश राज और धनवान होता बल्कि भारत भी गरीबी के इस भयानक भंवर से बच निकलता।

अंबेडकर भारत के सामाजिक ढाँचे में व्याप्त जातिवादी अर्थव्यवस्था को खूब समझते थे। जातिवाद वस्तुतः समाज की संपत्ति में कब्जा करते हुए और समाज के मजदूर वर्ग को गुलाम बनाए रखते हुए दोहरे मुनाफे का आर्थिक फार्मूला है। ऐसे में यदि ब्रिटिश राज के भारत में रुपया मजबूत हो पाता तो मिल मालिकों को और कंपनी के सैनिकों को मेहनताने का भुगतान रुपए में ही करना पड़ता और धीरे-धीरे समाज में बंधुआ मजदूरी और बेगारी करने वाले अपनी अस्मिता की लड़ाई के लिए खुद ब खुद खड़े हो जाते और रूस या फ्रांस की तरह भारत में भी इंकलाब की क्रांति सफल हो जाती।

अपनी किताब में अंबेडकर ने क्रांति की बात नहीं लिखी लेकिन मजदूरी का भुगतान रुपये में किए जाने के प्रावधान को बड़ी प्रखरता से लिखा है। उनके मुताबिक रुपये को सोने और चांदी के आधार पर ही टिकाए रहने का खामियाजा यह हुआ की भारत में रुपया सिर्फ व्यापारी और लालाओं तक ही सीमित रह गया, इसलिए अंग्रेजों ने मिल और कारखानो में व्यापक निवेश नहीं किया और कच्चे माल को यूरोप ले जाकर वहाँ उत्पादन कर दुनिया भर के बाजार में बेचते थे। इससे उनकी लागत लगभग तिगुनी हो जाती थी। यदि अंग्रेज रुपये को दमड़ी और चांदी पर बेस करते तो मजदूरी भी रुपए में अदा होती और भारत में भी उन्हे दक्ष मजदूर मिल जाते।

सोचिए अगर ऐसा होता तो मिल और कारखानों के मजदूर या खेत से मिल तक अनाज लादने लाने वाले मजदूर अपना हक रुपयों में कमाते और खुद इतने ताकतवर हो जाते की वो अपनी जंजीरे खुद तोड़ लेते।

इस किताब के दम पर, अंग्रेजों ने भारत के सेंट्रल बैंक का प्रथम निदेशक डॉ भीम राव अंबेडकर को नियुक्त किया। यही सेंट्रल बैंक आगे चल कर आजाद भारत का रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया बना। यानि रिजर्व बैंक के पहले गवर्नर असल में अंबेडकर ही थे। लेकिन आज अंबेडकर को सिर्फ एक दलित नेता के रूप में सीमित कर दिया गया है। वो इसलिए ताकि दलित वंचित वर्ग अंबेडकर को अपना मसीहा बनाने के संघर्ष में ये भूल जाएँ की उन्हे अपनी गुलामी की जंजीरें कैसे तोड़नी हैं।

आज भी, जब भविष्य निर्माण समूह, बहुजन समाज की आजादी के लिए आर्थिक आत्मनिर्भर होने के रास्ते का अनुसरण करने के आवाहन कर रहा है तो इस समूह के आड़े वही बहुजन वर्ग खड़ा है जो अंबेडकर को ईश्वर बनाकर पूजने को ही बहुजन समाज का अंतिम लक्ष्य साबित करना चाहता है। ये वही वर्ग है जो अंबेडकर निर्मित आरक्षण के दम पर भारतीय समुदाय के भीमकाये खजाने से एक टुकड़ा पाकर इतना मोटा हो गया है कि वो खुद को ब्राम्हण समझने लगा है।

साथियों, मैं अंबेडकर की बात को पुनः दोहराता हूँ, जब तक अपनी मेहनत की कमाई अपनी शर्तों में लेना नहीं सीखोगे तुम कभी आजाद नहीं हो सकोगे। आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति ही समाज का संबल और अपने समुदाय की गरिमा स्थापित कर सकता है। यदि भविष्य निर्माण संघ अपने वर्ग को आर्थिक एवं विचारधारा व्यापक खुराक देने में विफल रहता है तो हमारी आने वाली नसलें भी अंबेडकर और बुद्ध को भगवान बताकर खुद को ब्राम्हण साबित करते हुए हमारे अपनों का शोषण करने वाले सावर्णों के लठैत बनकर रह जाएंगें।

हमारे आक्रान्ताओं ने हमारे अंबेडकर को हमारा मसीहा बनाकर हमे थमा दिया है, ये झुन झूना बजाते रहना है या अंबेडकर को इस कठघरे से आजाद कराना है? ये फैसला आपका है, भविष्य आपका है। विचार कीजिए।

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