अमेरिकी चुनाव पद्धति को पेचीदा साबित करने का भी कोई मक़सद हो शायद। इस देश की चुनावी प्रक्रिया को अनैतिक और जनता पर थोपी हुई प्रक्रिया भी बताया जाता रहा है। लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव बेहद तार्किक और सुलझी हुई लोकतांत्रिक प्रक्रिया से होता है। निक चीज़मेन और ब्राइन क्लॉस के लोकतांत्रिक व्यवस्था सूचकांक में अमरीकी लोकतंत्र सबसे बेहतर लोकतांत्रिक देशों में शुमार किया गया है।
चुनाव में बहुमत और जनमत में बहुत फ़र्क़ होता है। यदि जनमत को ही बहुमत मान लिया जाए तो फिर उक्त देश लोकतंत्र बहुसंख्यकों का ग़ुलाम बन के रह जाएगा। यानी की यदि सीधे जनता के मतदान से ही यदि राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री का चुनाव कर लिया जाए तो उक्त देश में जिस जाती, समुदाय या विचार के लोगों की संख्या अधिक होगी उनकी पसंद को तो तहरीज मिलेगी लेकिन जो लोग असहमत हैं और जनसंख्या में कम है उनका हमेशा हाई दमन होता रहेगा।
ये कुछ ऐसा होगा जैसे अगर किसी तालाब के पानी की गुणवत्ता को परखना हो और हम किसी घने पेड़ के छाँव के नीचे वाले तालाब के हिस्से का पानी लेकर गुणवत्ता की जाँच करें तालाब के उस हीसे को छोड़ दें जहाँ लगभग दिन भर कड़ी धूप रहती है तो शायद पूरे तालाब के पानी गुणवत्ता के बारे में ग़लत अनुमान ही लग सकेगा। इसलिए तालाब के हर हिस्से से थोड़ा थोड़ा सैम्पल लेकर पानी की जाँच किया जाना चाहिए। ठीक उसी तरह से अगर देश के हर हिस्से से प्रतिनिधियों को चुन कर एक सभा का निर्माण किया जाए और वो सभा प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का चुनाव करे तो ही सर्वाधिक उपयुक्त नेता का चुनाव हो सकता है।
ऐसा लगभग सभी मज़बूत लोकतंत्र में होता है। लेकिन इन प्रतिनिधियों को कैसे चुना जाएगा और उनके काम क्या क्या रहेंगे इस मामले में लगभग सभी लोकसभाएँ अलग अलग रूप से कार्य करती हैं। इसी विधि में अमेरिका और अन्य देशों का चुनाव अलग हो जाता है।
अमरीकी चुनाव प्रक्रिया भी भारत और ब्रिटेन के आम चुनाव से मिलती जुलती तो है लेकिन फिर भी बहुत अलग है। इसे समझने के लिए पहले राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री में फ़र्क़ को समझिए।
यदि किसी राष्ट्र में कोई राज शाही का आधिपत्य नहीं है तो उस राष्ट्र का महामहिम वहाँ का राष्ट्रपति होता है। अमेरिका में किसी राजशाही परिवार या सत्ता का दख़ल नहीं है इसलिए वहाँ राष्ट्रपति हाई सबसे बड़ी शक्ति है। कनाडा में सर्वोच्च पद ब्रिटेन राजमुकुट को प्राप्त हाई और क्वीन ओफ़ ब्रिटेन वहाँ की सबसे बड़ी शक्ति है। ये शक्ति प्रतीकात्मक है, वास्तव में वहाँ प्रधान मंत्री को हाई सबसे अधिक अधिकार दिए गए हैं। भारत में सबसे बड़ा ओहदा राष्ट्रपति का है लेकिन ये केवल प्रतीकात्मक ओहदा है जो ब्रिटिश इंडिया काल में वाईसरॉय के स्थान पर आसीन होता है। इस पद की गरिमा को किसी राजशाही गरिमा के बराबर रखा गया है लेकिन इस पद को भी हर छः वर्ष में बदला जाता है। भारत में सभी शक्तियाँ सांसद भवन के के मुखिया को प्राप्त हैं।
जबकि अमरीका में राष्ट्रपति संसद का सदस्य नहीं होता है न ही उसे संसद सत्र में हिस्सा लेने की अनुमति होती है। ये जानकर अजीब लगेगा लेकिन सत्ता में शक्ति का संतुलन ही किसी देश को सबसे स्थिर बना सकता है। अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना के बाद आज तक तख्ता पलट नहीं हुआ है। वहीं भारत जैसे सबसे बड़े लोक तंत्र में भी इमरजेंसी लगाकर लोकतंत्र को ध्वस्त करने की कोशिश की जा चुकी हैं और पाकिस्तान जैसे देशों में तो कितनी बार तख्ता पलट हो चुका है।विदित हो कि अमेरिकी और भारत समेत लगभग सभी सफल लोकतंत्र में देश के मुखिया की हत्या की जा चुकी हैं। वहीं ब्रिटेन जैसे अर्ध लोकतांत्रिक देश में आज तक ऐसी हिंसा नहीं हुई है। शायद इसलिए क्यूँकि ब्रिटेन की संसद में सतत बदलाव होते रहे हैं।
1788 में अमेरिका का पहला चुनाव हुआ था, वो चुनाव आज के अमरीकी चुनाव से बिलकुल अलग था। आज अमेरिका में केवल दो प्रतिद्वंदी ही इलेक्टोरल कॉलेज के वोट के लिए चुने जाते हैं, पहले लगभग सभी प्रतिद्वंदियों को इलेक्टोरल कॉलेज में हिस्सा लेने की सम्भावना अधिक होती थी। कालांतर में सभी राजनीतिक दलों को दो एक्सिस में विचारधारा के बँटवारे के रूप में बाँट दिया गया। लेकिन ऐसा नहीं है की अमेरिका में सिर्फ़ दो हाई मुख्य राष्ट्रपति प्रतिद्वंदी हो सकते हैं।
अगर आज भारत में यूपीए और एनडीए को प्रमुख दल मान लिया जाए तो भारतीय चुनाव भी लगभग अमेरिकी चुनाव जैसे दिखने लगता है। आसानी से समझने के लिए भारत के राष्ट्रपति के चुनाव और प्रधान मंत्री के चुनाव को अगर जोड़ दिया जाए तो कुछ हद तक हम अमेरिकी चुनाव के मॉडल को बना लेते हैं। जैसे भारत में यूपीए और एनडीए है, वैसे ही अमेरिका में डेमक्रैटिक और रिपब्लिक हैं। वहाँ राष्ट्रपति का चुनाव पॉप्युलर वोट यानी जनमत संग्रह के आधार पर होता है लेकिन सीधे तरीक़े से नहीं। यूँ समझिए जैसे भारत में राज्यसभा का चुनाव होता है वैसे ही।
अमेरिका में आम चुनाव को पॉप्युलर वोट कहते हैं। जिसमें आम नागरिक के मतदान को आमंत्रित किया जाता है। इस चुनाव के शुरुआत के स्टार प्रचारक सभी के सभी राष्ट्रपति पद के लिए अपनी प्रबल दावेदारी प्रस्तुत करते हैं। आख़िरी में बचे दो दावेदारों को डेमक्रैटिक और रिपब्लिक अपने अपने दल का प्रतिनिधि घोषित करते हैं। फिर ये दोनों प्रतिद्वंदी सभी राज्यों में जाकर अपने लिए पॉप्युलर वोट पाने के लिए प्रचार करते हैं। लेकिन ये वोट इनको सीधे नहीं मिलते हैं। बल्कि हर राज्य के प्रतिनिधि को ये वोट प्राप्त होते हैं। ये वो प्रतिनिधि होता है जो पहले ही अपने पसंदीदा उम्मीदवार को चुन चुका होता है। इस प्रक्रिया को एलेक्ट्रोरल कॉलेज का चुनाव कहते हैं। हर राज्य के इलेक्टोरल कॉलेज का वजन उस राज्य की जन संख्या के आधार पर तय होता है। फिर ये सभी इलेक्टोरल कॉलेज अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
हर राज्य में जीते हुए दल को सभी के सभी इलेक्टोरल कॉलेज पोईंट अलॉट हो जाते हैं। इसको विनर टेक्स आल प्रणाली कहते हैं यानी की जो जीता सब उसका। इस लिए कई बार पॉप्युलर वोट जीतने के बाद भी प्रतिद्वंदी राष्ट्रपति नहीं बन पाता। ऐसा अमरीकी इतिहास में चार बार हुआ है। पिछले दो दशक में तो दो बार हो चुका है। यही नहीं, 2016 के चुनाव में हिलेरी क्लिंटन को डॉनल्ड ट्रम्प से रिकार्ड 30 लाख वोट अधिक मिले थे फिर भी डॉनल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति बने। इसलिए अमेरिकी चुनावी प्रक्रिया पर उठने वाले सवालों के स्वर तेज हो रहें हैं।
बताते चलें कि सबसे कमजोर लोकतंत्र जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश में भी देश की मुखिया एक महिला बन चुकी हैं। भारत, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में भी महिला मुखिया रहीं है लेकिन अमेरिका में एक भी राष्ट्रपति महिला नहीं हुई।
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