२०१४ में ही पहले केजरीवाल ने हराया, २०१५ में नीतीश लालू ने; उसके बाद ममता बैनर्जी, भूपेशबघेल, जगनरेड्डी ,राव, हेमंत सोरेन, नवीनपटनायक, सिंधिया कमलनाथ, गैहलोत, उद्धव, कैप्टेन अमरिंदर सिंह , गोवा समेत अन्य कई राज्यों में मात्र प्रदेश स्तरीय नेताओं ने ईश्वरीय अवतार को पटकनी दी है। जब बहुमत नहीं ला सके तो मणिपुर अरुणाचल गोवा मप्र आदि में पैसों से दलबदल करा दिया फिर भी मात्र दस राज्यों में खुद की या मिली जुली सरकार है।
यदि गैरकांग्रेसवाद की तर्ज़ पर समूचा विपक्ष इकट्ठा हो जाये तो न जाने कब का झोला उठ गया होता। सारा खेल एक ही चीज का है पैसा और बड़ा पैसा यानी कालाधन । अंबानी अडाणी का दिया अरबों रूपया जिसके लिये देश बेचा जा रहा है।
पैसे के दम पर मीडिया !
कब तक ?
जब तक इस देश का युवा अपनी और समाज की समस्याओं के लिये मुखर होकर अहिंसक आंदोलन के लिये सड़क पर नहीं आता, बस तभी तक। जब तक यह घरबैठू आक्रोश संसद व विधानसभाओं के चुनावों में नहीं दिखता। जब तक जाति धर्म में बंटा भारतीय समाज अपने जीवन के मुद्दों की अहमियत नहीं समझता।
नीचे बिहार का चुनावी पोस्टर है जहॉं पूरा चुनाव अब मोदी विरुद्ध तेजस्वी हो गया है और तेजस्वी इन्हें दौड़ा रहा है। तेजस्वी प्रम की ही तरह पढालिखा नहीं है तो क्या हुआ , जो जनता की आवाज़ की बुलंद करेगा वह जनता का नेता होगा।
नतीजा १० नवंबर को आयेगा और संभावना बनने लगी है कि ११ नवंबर को फिर से “ चाणक्य टोली” या तो थैलियॉं ले लेकर संभावित दलबदलुओं को टोहने निकलेगी या मोदी जी को तेजस्वी शपथ ग्रहण का न्यौता मिलेगा।
वोटिंग तक नहीं वोटिंग के बाद तक नई सरकार के गठन तक चौकस रहना होगा।
~रामा शंकर सिंह
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