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देश की जनता ने बॉलीवुड के किसानों को देखा है, प्रेमचंद के किसानों को नहीं पढ़ा।
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एसी में बैठा 3 पीढ़ियों से लखपति, एक लखिया तनख्वाह पाने वाला आदमी स्मार्ट टीवी के सामने बैठकर अपने आईफ़ोन से लिखता है कि 'मैं भी किसान हूँ, पर मैं इस भारत बंद का समर्थन नहीं करता'। दरअसल किसानों और देश को सबसे ज़्यादा ख़तरा ऐसे लोगों से ही है।
ये देखकर बड़ा दुःख हो रहा है कि सत्ता पक्ष किसान आंदोलन को राजनैतिक पार्टी से प्रेरित होने का दुष्प्रचार कर रही है। (इनके लिए अन्ना और रामदेव का आंदोलन जनता का आंदोलन था।)
सरकार यह बात नहीं बता रही कि किसान कानूनों के क्या नुकसान हैं। बल्कि, लोगों को समझा रही है कि भारत बंद से कितनी हानि होगी। किसानों को आतंकवादी और खालिस्तानी कहने से भी नहीं चूक रहे।
ख़ैर, यह तो इनकी पुरानी आदत है। युवा विरोध करें तो आतंकवादी, बुद्धिजीवी करें तो अर्बन नक्सल और पंजाबी किसान करें तो खालिस्तानी। अंग्रेज़ भी भगतसिंह समेत सभी क्रांतिकारियों को आतंकवादी ही मानते थे। और उनकी हाँ में हाँ ऐसे ही एक लखिया तनख़्वाह पाने वाले लोग मिलाते थे।
टैक्स के पैसों की बर्बादी की दुहाई देने वालों ने 3 महीने लॉकडाउन में चूँ तक नहीं की जब सबकी तनख्वाहें बन्द और धंधे ठप्प थे मगर EMI का ब्याज़ चालू रहा। ये 1 दिन उन लोगों के लिए खड़े नहीं हो सकते जिनकी खून पसीने की मेहनत से उन्हें खाना मिलता है।
दरअसल समस्या है कि देश की जनता ने बॉलीवुड के किसानों को देखा है, प्रेमचंद के किसानों को नहीं पढ़ा। अगर पढ़ा होता तो उन्हें अंदाज़ा होता कि किसान कितनी तकलीफें उठाता है।
हो सकता है कुछ लोग ऐसे भी हों जिनकी कमाई का साधन सिर्फ़ किसानी ही है, और वह समृद्ध किसान हों। मगर यहाँ मैं बात किसानों की कर रहा हूँ, ज़मींदारों की नहीं। बात उन किसानों की है जिनके पास ट्रैक्टर तक नहीं हैं।
- शिवम शुक्ला
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