पप्पू और फेंकूँ यूँ तो बेहद हल्के शब्द हैं। लेकिन भारत की मौजूदा लोकतांत्रिक समीकरण के दो मूल मेटाफ़र हैं। सत्ता पक्ष के मुखिया को फेंकू और लगातार गिरते हुए विपक्ष को पप्पू कह कर सम्बोधित किया जाता है। इन शब्दों का मोनोविज्ञान समझते हैं फिर समझेंगे सत्ता भावनाओं के खिलवाड़ से हाँसिल होती है या मतगणना के गणित से।
अपने स्कूल या कॉलेज के दिनों में आपका कोई साथी रहा होगा जिसे आपके साथी लोग चालू या शातिर समझते होंगे, कोई ऐसा भी रहा होगा जिसे लोग चोमू या चम्पक कहते होंगे। बाँकी अधिकतर लोग सामान्य से होंगे जिनमें से आधों को आप भूल भी चुके होंगे। लेकिन जैसे ही चोमू शब्द ज़िक्र आता होगा आज भी आपको अपने स्कूल या कॉलेज से कोई ना कोई इंसान का चित्र ज़रूर उभर जाता होगा। ऐसा ही शातिर या चालू शब्द सुनकर भी होता होगा। ठीक से याद कीजिए, जब भी आपको लैब या स्पोर्ट्स में किसी की मदद लेनी होती थी तो आप किससे पहले बोलते थे? चालू से या चोमू से? आप किसका अधिक मज़ाक़ उड़ाते थे? चालू का या चोमू का? यदि आज उन दोनों को चुनाव लड़ा दिया जाए तो आप किसको वोट करेंगे? चालू को या चोमू को? इस लेख को यहीं पढ़ना छोड़ कर पहले कॉमेंट में अपना जवाब ज़रूर लिख दीजिए। बड़ी दिलचस्प जानकारी मिलेगी आपको।
मैंने आपको एक मनोविज्ञानिक द्वन्द में फँसा दिया है। अब पूरे लेख में मैं आपको बारी-बारी से कन्फ़्यूज़ करूँगा। मसलन अगर आपने चोमू को चुना है तो समझिए अगले पाँच साल तक आपको जग हँसायी सहनी पड़ेगी। लोग ताने देंगे की नेता ही इतना चोमू है तो जनता कैसी होगी। यदि आपने चालू को चुन लिया तो समझिए जो रुपए दो रुपए आप बचा लेते थे, ये चालू उन सब का नाश कर डालेगा और आप उसका कुछ नहीं उखाड़ पाओगे। हाँ चोमू को चुनने का एक फाएदा है, की उसकी केबिनेट के लोग उससे ज़रूरी काम आसनी से निकलवा लेंगे और सबका कुछ न कुछ भला होता रहेगा। लेकिन अगर चालू को चुन लिया तो किसी को ठेंगा कुछ नहीं मिलने वाला। सब उस चालू की गैंग के दोस्त यार लूट लेंगे। चोमू के साथ दिक़्क़त ये है की वो आए दिन अपनी जग हंसाई कराएगा और हमकों बग़लें झांकनी पड़ेंगी। चालू से ये तो बढ़िया रहेगा की दुनिया भर के दादा भाई अपनी औक़ात में रहेंगे। चालू हमारे अंदर के कपड़े बेंच देगा और बाहर से हमको चमका के रखेगा। चोमू न खुद के लिए कुछ कर पाएगा ना हमारे लिए कुछ छोड़ेगा। वैसे देखा जाए तो जो चोमू होने का नाटक करता है वो असली में बहुत चालू है। और जो चालू नज़र आ रहा है असली चोमू वही है। दोनों बारी-बारी से येड़ा बन के पेड़ा खा लेते हैं और हमको सूखी रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं।
चालू के समर्थक चोमू को चोमू बनाए रखने के लिए खूब मेहनत करते हैं। चोमू पूरी ताक़त से चालू को चालू साबित करने में लगा रहता है। दोनों के पास इस काम के लिए ख़ासा बजट है, बहुत सारा टाइम है और बड़ी भारी टीम है। दोनों को चाहने वालों और नफ़रत करने वालों की संख्या घटती बढ़ती रहती है। 49 और 51 का खेल है, कभी चालू को 51 मिल जाते तो वो सरकार बना लेता तो कहीं चोमू को 51 मिल जाते हैं और वो सरकार बना लेता है। बारी-बारी से दोनों सत्ता भोगते हैं और एक दूसरे को कोसते हैं। हम अगले पाँच सालों तक यही सोचते रहते हैं कि अबकि बार चालू सरकार या पाँच साल चोमूलाल। इस बीच कहीं कहीं पे कोई-कोई बरसाती छर्रे भी अपनी बिसात बैठाने लगते हैं लेकिन जाने अनजाने वो चालू और चोमू की खेती में उगे खरपतवार से अधिक और कुछ नहीं होते।
यही नवजात लोकतंत्र का तिलस्म है, कहने को तो करोड़ों विकल्प हैं लेकिन चुनने के लिए सिर्फ़ दो। करोड़ों विकल्पों से दो के चुनाव के बीच जो कुछ भी किया जाता है उसे भटकाव कहते हैं। जैसे इस छोटे से लेख में आप भटक गए, भूल गए कि आपकी कक्षा में सिर्फ़ चोमू और चालू ही नहीं पढ़ते थे। 60 और लोग भी थे, उन्मे से कुछ महिलाओं के हितैषी थे, कुछ खेल कूद, कुछ म्यूज़िक के हिमायती थे कुछ गणित के, कोई ड्रामा लिखता था, कोई भाषण अच्छा देता था। कोई एक झटके में सारा होमवर्क कर लेता था कोई एक रात में पढ़ के ग़ज़ब नम्बर ले आता था। कोई टिफ़िन में खाना अच्छा लाता था कोई पास के पेधों से बैर और अमिया चुरा लाता था। हम उन सब को भूल गए, याद रहे गए या तो चालू और या फिर चोमू।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हो क्या रहा है? सत्ता पक्ष पूरी ताक़त से विपक्षी नेता को पप्पू बनाने में जुटी हुई है। विपक्षी सिर्फ़ यही चींख रहे हैं की सत्तादल का नेता फेंकू है। दरसल फेंकना सिर्फ़ चालू व्यक्ति को आता है और चोमू हमेशा पप्पू बना रहता है। हमें लगता है एक दिन फेंकू इस पप्पू को बर्बाद कर देगा, कुछ को लगता है एक दिन पप्पू फेंकू का पर्दा फ़ास कर देगा। कई सोचते हैं कि फेंकू की वजह दुनिया हमे दबंग के रूप में देखने लगी है, कुछ ये मानते हैं चोमू की वजह ही फेंकू कुछ ढंग का कर पा रहा है। इधर उधर, उधर इधर टेनिस की गेंद की तरह हमारी नज़रें फेंकू और पप्पू के बीच झूलती रहती हैं। जिसकी गलती से टेनिस गेंद गिर जाती है उसके विरोधी उसपर हंसने लगते हैं। लेकिन मन ही मन फेंकू और पप्पू दोनों खुश होते जाते हैं, वो इशारों-इशारों में तय कर लेते हैं इस बार तू गेंद गिरा देना उस बार मैं गिरा दूँगा। दर्शक आपस में भद पीटते रहते हैं।
प्रसव पीड़ा में रोती हुई माँ और चींखता हुआ नवजात जिसे हम वतन और लोकतंत्र भी कह सकते हैं, उसने हामरे लिए अभी तक बस इतना ही किया है। तख़्त पर फेंकू बैठेगा या पप्पू इसका चुनाव दर्शक करेंगे। लेकिन क्या चुनाव करेंगे इसका फ़ैसला फेंकू और पप्पू मिलकर करेंगे।
आपको शायद लग रहा होगा ये बहुत बुरा हो रहा है। आप खुद को ठगे से महसूस कर रहे होंगे! नहीं दोस्त, लोकतंत्र है तो ये दो लोग तमाशे कर रहे हैं। कुछ दशक पहले तक जब लोकतंत्र नहीं था, तो ऐसे कई फेंकू, पप्पू, चोमू और चालू लोगों की बिसात होती थी जिनका एक सरग़ना होता था। वो इन सबसे ज़्यादा भयावाह होता था। क्रूरतम और वंशानुगत तानाशाहों के चंगुल से छूट कर हम फेंकू-पप्पू के बीच आ फँसे हैं। यहाँ से पलटना नहीं है, आगे बढ़ना हैं। अपने बाँकी साथियों को याद करिए और सही समय का इंतज़ार करिए। सही है, लोकतंत्र बिल्कुल बेकार है लेकिन बाँकी और विकल्प इससे भी नीचे गिरे हुए हैं।
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